साक़ी की नज़्में

Dinesh Shrinet
4 min readDec 4, 2020
साक़ी फ़ारुकी

फरहत एहसास ने जश्न-ए-अदब में ‘साक़ी’ फ़ारुक़ी को श्रद्धा्ंजलि देते हुए उनकी शायरी पर चर्चा की। साक़ी का इसी साल 20 जनवरी को लंदन में निधन हो गया। वे अपने किस्म के अलग शायर थे। जिनकी शायरी का मिजाज आधुनिक हिन्दी कविता के बहुत करीब था। यह अलग बात है कि हिन्दी वाले उन्हें न के बराबर जानते है। उनका जन्म गोरखपुर में हुआ था मगर भूले से भी मैंने कभी किसी से उस शहर में उनकी चर्चा नहीं सुनी।

साक़ी बाद में पू्र्वी पाकिस्तान चले गए और उसके बाद उनके जीवन के बाकी हिस्सा लंदन में बीता। फरहत साहब ने उनकी दो नज़्में सुनाईं, जो मैंने इंटरनेट पर खोजीं और रेख़्ता की वेबसाइट पर ही मिल गईं। वो दोनों नज़्में यहां शेयर कर रहा हूँ, हमारे दोस्त खालिद जावेद ने उनकी एक और नज़्म ‘ख़ाली बोरे में ज़ख़्मी बिल्ला’ का जि़क्र किया, इत्तेफ़ाक से वो भी मिल गई। उसे भी शेयर कर रहा हूँ।

ये नज़्में हम हिन्दी वालों के जेहन में उर्दू शायरी का घिसा-पिटा पर्सेप्शन तोड़ती हैं और यह बताती हैं कि अब जौन एलिया के ख़ुमार से बाहर निकलकर अपने वक्त के कुछ और शायरों और उनके मुहावरों को जानने-समझने की जरूरत है।

1.
मस्ताना हीजड़ा

मौला तिरी गली में
सर्दी बरस रही थी
शायद इसी सबब से
मस्ताना हीजड़ा भी
विस्की पहन के निकला
टेनिस के बाल
कसती अंगिया में
घुस-घुसा के
पिस्तान बन गए थे
शहवत के सुर्ख़ डोरे
सुर्मा लगाने वाली
आँखों में तन गए थे
इक दम से
चलते चलते
उस ने कमर के झटके से
राह चलने वाले
शोहदों, हराम-ख़ोरों
से इल्तिफ़ात माँगा
और दावत-ए-नज़र दी
उस के ज़ख़ीम
कूल्हों ने
आग और लज़्ज़त
ख़ाली दिलों में भर दी
उस ने हथेलियों के गद्दे
रगड़ रगड़ के
वो तालियाँ उड़ाईं
मेहंदी के रंग
तितली बन के हवा में
अपने पर तौलने लगे थे
फिर जान-दार होंटों
से पान-दार बोसे
छन छन छलक छलक के
हर मनचली नज़र में
रस घोलने लगे थे
वो आज लहर में था
मिस्सी की छब दिखा के
नथने फुला फुला के
उँगली नचा नचा के
उस ने मज़े में आ के
हँस कर कहा कि ‘’सालो’’
मैं तो जनम जनम से
अपने ही आँसुओं में
डूबा हुआ पड़ा हूँ
शायद ज़मीर-ए-आलम के
तंग मक़बरे में
ज़िंदा गड़ा हुआ हूँ

2.
ख़ाली बोरे में ज़ख़्मी बिल्ला

जान-मोहम्मद-ख़ान
सफ़र आसान नहीं
धान के इस ख़ाली बोरे में
जान उलझती है
पट-सन की मज़बूत सलाख़ें दिल में गड़ी हैं
और आँखों के ज़र्द कटोरों में
चाँद के सिक्के छन-छन गिरते हैं
और बदन में रात फैलती जाती है…
आज तुम्हारी नंगी पीठ पर
आग जलाए कौन
अंगारे दहकाए कौन
जिद्द-ओ-जोहद के
ख़ूनी फूल खिलाए कौन
मेरे शोला-गर पंजों में जान नहीं
आज सफ़र आसान नहीं
थोड़ी देर में ये पगडंडी
टूट के इक गंदे तालाब में गिर जाएगी
मैं अपने ताबूत की तन्हाई से लिपट कर
सो जाऊँगा
पानी पानी हो जाऊँगा
और तुम्हें आगे जाना…
इक… गहरी नींद में चलते जाना है
और तुम्हें इस नज़र न आने वाले बोरे…
…अपने ख़ाली बोरे की पहचान नहीं
जान-मोहम्मद-ख़ान
सफ़र आसान नहीं

3.
मुर्दा-ख़ाना

मिरी रगों में ख़ुनुक सूइयाँ पिरोता हुआ
बरहना लाशों के अम्बार पर से होता हुआ
हवा का हाथ बहुत सर्द, मौत जैसा सर्द
वो जा रहा है, वो दरवाज़े सर पटकने लगे
वो बल्ब टूट गया, साए साथ छोड़ गए
वो नाचते हुए भेजे किसी रक़ीक़ से तर
वो रेंगते हुए बाज़ू, वो चीख़ते हुए सर
वो होंट नीम-तराशीदा, दाँत निकले हुए
वो निस्फ़ धड़ चले आते हैं रक़्स करते हुए
वो जिस्म सहमे हुए बंद मर्तबानों में
जो बात की तो उन्हें तेज़-ओ-तुर्श ज़हर मिला
जो चुप हुए तो उन्हें सूलियों पे टाँग दिया
छुपी हैं सैकड़ों बद-रूहें इन फ़ज़ाओं में
वो घूरती हुई आँखें कहीं ख़लाओं में
ज़मीं के मालिक-ए-देरीना की तलाश में हैं
जराहतों के निशाँ हर ख़मीदा लाश में हैं
और इक सदा चली आती है, हर जराहत से
ये सारे ज़ख़्म मुक़द्दर हुए हैं मौत के बाद
सुकून-ए-लफ़्ज़-ओ-बयान ओ सुकूत-ए-सौत के बाद
बड़ी बिसांद है ठिठुरती हुई हवाओं में
मैं घिर गया हूँ लहू चाटती बलाओं में
वो इक बुरीदा ज़बाँ आई लड़खड़ाती हुई
हँसी… डरावनी सरगोशियों में कहने लगी
तुम अपनी लाश लिए भाग जाओ जल्दी से
न सुन सकोगे कि हैं मौत के फ़साने बहुत
मताअ-ए-जिस्म सलामत कि मुर्दा-ख़ाने बहुत

फेसबुक से — 9 अप्रैल 2018

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Dinesh Shrinet

writer and journalist, writes on art, cinema and popular culture